मनुष्य जीवन एक दूसरे के सहयोग से चलता है आचार्य सम्राट डॉ. श्री शिवमुनि जी म.सा.

21 सितम्बर 2025, आत्म भवन, बलेश्वर, सूरत।
आचार्य सम्राट डॉ. श्री शिवमुनि जी म.सा. ने अपने उद्बोधन में फरमाया पण्डित वह होता है जो अपनी प्रज्ञा से, अनुभव से जान लेता है। शास्त्र वाणी दिशा निर्देश देती है कि एक-एक क्षण सबसे महत्त्वपूर्ण है। इसलिए एक-एक क्षण का उपयोग कर्म निर्जरा व धर्म ध्यान में करना चाहिए।
आचार्य श्री जी ने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की व्याख्या करते हुए फरमाया कि चार गति चौरासी लाख जीवायोनि के बाद मनुष्य जन्म मिला यदि इंसान का जन्म मिलने के बाद इंसानियत नहीं है तो उसका जीवन व्यर्थ है। इंसानियत द्रव्य क्षेत्र है। लाल बहादुर शास्त्री, अब्दुल कलाम, रतन टाटा जैसे महान व्यक्तियों ने देश व जनहित के लिए अपने धन का सदुपयोग किया न कि केवल अपने व्यक्तित्व के पोषण के लिए। ‘‘परोस्परोपग्रहो जीवानाम’’ व्यक्ति का जीवन एक दूसरे के सहयोग से चलता है। अध्यात्म की दृष्टि से एक श्रावक साधु की साधना के लिए और एक साधु श्रावक की धर्म आराधना में सहयोग देकर एक दूसरे को ऊंचा उठाते हैं।
उन्होंने क्षेत्र के विषय में फरमाया कि अनेक लोग ऐसे हैं जो जीवों की हत्या करते हैं, दूसरे देशों में ऐसे अनेक लोग हैं जो अपने ऐशो आराम के लिए धन खर्च करते हैं, व्यसन करते हैं, उनका जीवन धर्ममय नहीं होता हैं, पाप से अर्जित किया हुआ धन पाप में व्यय होता है।
काल की चर्चा में फरमाया कि व्यक्ति अपने स्वभाव में आ जाए, अपनी आत्मा में आ जाए और वर्तमान क्षण में जो क्षण है उसी में स्थित रहे उसे काल क्षण कहते हैं।
भाव क्षण की चर्चा करते हुए फरमाया कि व्यक्ति में उत्तम भावों की प्राप्ति हो जैसे गजसुकुमाल, अर्जूल माली ऐसे आत्मार्थी आत्मा थे, जिन्होंने उत्तम भावों के साथ साधना की। आनन्द हमारा स्वभाव है कोई भी सुख या दुःख नहीं दे सकता। सारा संसार अपने कर्मों के आधार पर चलता है। यह छोटा सा मानव जीवन है, जो चला गया है उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए, जिस क्षण में जी रहे हो यही क्षण अपना है।
प्रमुख मंत्री श्री शिरीष मुनि जी म.सा. ने अपने उद्बोधन में फरमाया कि जो संत आज्ञा में विचरण करता है वह हमेशा समाधि में रहता। दीक्षा लेने के बाद समाधि यानि सुख संपति, जिसको कुछ चाहिए ही नहीं। जो पुद्गल में अटका हुआ है जिसे इष्ट का संयोग चाहिए, अनुकूलता चाहिए, अनिष्ट कब मेरे से दूर हो जाए, चाहे वह व्यक्ति स्थान है, घर, परिवार, संघ समाज, साथी है उसे दूर करने का भाव करता है तो वह आर्त्त-रौद्र का भाव है और वह समाधि में नहीं रह सकता। जैन दर्शन की साधना हठ योग की नहीं राज योग की है। जो व्यक्ति प्रभाव, पद, प्रतिष्ठा इच्छा रखता है वह साधक नहीं है। जब तक जड़ जीव का भेद नहीं किया तो समाधि आ नहीं सकती। जैन दर्शन का बेसिक है भेद विज्ञान।
प्रभु महावीर के 32 आगमों का सार भेद विज्ञान हैं। समग्र जिनवाणी का सार है ‘सोह्म’ जिसमें अपना जीव और छह काय के सभी जीव साथ हैं। सब जीव एक समान है। मुझ जीव को सिद्धशिला जाना है। मैं ऐसा कोई आचरण नहीं करूं जिससे बंधन हो जाए।
युवा मनीषी श्री शुभम मुनि जी म.सा. ने ‘‘शिवोह्म-शिवोह्म पुकारा करेंगे यह ब्रह्मात्म को विचारा करेंगे’’ सुमधुर भजन की प्रस्तुति दी।




