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संवर की साधना से गुणस्थानों का ग्राफ बढ़ता है ऊपर : युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण

पावस प्रवास व फड़द, पूज्य सन्निधि में हुआ लोकार्पित-उपासक श्रेणी को आचार्यश्री ने प्रदान की उप संपदा

आचार्यश्री ने तेरापंथ प्रबोध को भी किया व्याख्यायित

-16.07.2025, बुधवार, कोबा, गांधीनगर (गुजरात) :

‘आयारो’ आगम में बताया गया है कि कर्म के बंधन के मुख्तया दो कारण प्रतीत हो रहे हैं- कषाय और योग। इनके द्वारा प्राणी को कर्मों का बंध होता है। बंध के चार भेद बताए गए हैं- प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश। प्रकृति और प्रदेश का संबंध योग के साथ स्थिति और अनुभाग का संबंध कषाय के साथ है। पाप कर्मों का बंधन उसमें मोहनीय कर्म की भूमिका होती है। मोहनीय कर्म का मुख्य तत्त्व कषाय होता है। राग-द्वेष को कर्मों का बीज कहा गया है। अगर कषाय समाप्त हो गया और कोरा योग रह जाता है तो वहां नाममात्र का कर्म बंध होता है। एक समय बंधता है, दूसरे समय भोगता है और तीसरे समय में वह झड़ जाता है। एक से दस गुणस्थान तक होने वाला बंध सांपरायिक बंध होता है। कषाय और योग दोनों की विद्यमानता में सघन कर्मों का बंध होता है।

उत्कृष्ट संवर की साधना चौदहवें गुणस्थान में होती है। जहां पांचों संवर एक साथ रहते हैं। शेष अन्य किसी गुणस्थान में पांचों संवर साथ नहीं रहते। आदमी को ध्यान देना चाहिए कि गुणस्थानों की प्राप्ति में संवर का बड़ा योगदान होता है। पहले गुणस्थान में कोई संवर नहीं होता। गुणस्थान और संवर का मानों एक संबंध है। जितनी संवर की साधना संपुष्ट होती है, गहरी होती है तो गुणस्थानों का ग्राफ भी ऊंचा जा सकता है।

इसलिए ‘आयारो’ आगम में बताया गया कि कर्मों का बंध कराने वाले कषाय को जो रोक देता है, वह अपने किए हुए कर्मों का क्षय करने वाला बन सकता है। साधना में दो ही चीजें खास हैं- संवर और निर्जरा। इन दो के सिवाय अध्यात्म की साधना में कुछ नहीं होता है। आदमी को अपनी संवर की साधना को पुष्ट बनाने का प्रयास करना चाहिए। आदमी कर्मों के आगमन को रोक देता है तो उसकी संवर की साधना आगे बढ़ सकती है।

श्रावक सामायिक करते हैं। सामायिक करना भी कर्मों को रोकने की एक विधा है। सामायिक छह कोटि, आठ कोटि व नौ कोटि की भी हो सकती है। दो करण तीन योग से सामायिक करने से छह कोटि की सामायिक होती है। तीन करण और तीन योग से सामायिक करने वाले को नौ कोटि की सामायिक हो जाती है। इसलिए जितना संभव हो सके, संवर करने का प्रयास करना चाहिए। जैसे आदमी को यह त्याग करे के मैं इतने ज्यादा धन अपने पास नहीं रखूंगा, भोजन में सीमाकरण हो जाए कि इतने द्रव्यों के अलावा मैं अन्य नहीं खाऊंगा। इस प्रकार त्याग संवर हो जाता है। त्याग करना आत्मा के कल्याण का मार्ग है। सामायिक के दौरान कोई आदमी धर्म चर्चा करे तो वह निर्जरा का लाभ मिलता है। सामायिक संवर है और उसमें होने वाले शुभ योग से निर्जरा होती है और पुण्य कर्मों का बंध होता है। चतुर्मास के दौरान आदमी जितना संवर और निर्जरा करने का प्रयास करे, वह उसके लिए कल्याणकारी हो सकता है।

उक्त पावन व जीवनोपयोगी प्रेरणा जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने बुधवार को ‘वीर भिक्षु समवसरण’ में उपस्थित जनता को प्रदान की। अपने आराध्य के श्रीमुख से आगमवाणी का श्रवण कर श्रद्धालु निहाल नजर आ रहे थे। आचार्यश्री ने मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री भिक्षु जन्म त्रिशताब्दी वर्ष के संदर्भ में ‘तेरापंथ प्रबोध’ के कुछ अंशों का संगान कराया और उसकी व्याख्या भी की।

अहमदाबाद चतुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति द्वारा वि.सं. 2082 का पावस प्रवास और फड़द को आचार्यश्री के करकमलों में उपहृत किया गया। आचार्यश्री ने इस संदर्भ में पावन आशीर्वाद प्रदान किया। आचार्यश्री ने उपासक शिविर के संदर्भ में उपस्थित उपासक-उपासिकाओं को उप संपदा प्रदान की।

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