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आत्मिक शांति का सूत्र: अपेक्षा ही दुःख का मूल कारण है- पू.श्री शाश्वतसागरजी म.सा.

व्यक्ति केवल अस्थायी सुखों के पीछे भागता है-समर्पितसागरजी म.सा.

सूरत। कुशल दर्शन दादावाड़ी, सूरत में आयोजित चातुर्मास प्रवचन में पूज्य खरतरगच्छाचार्य, संयम सारथी, शासन प्रभावक श्री पीयूषसागरजी म.सा. के शिष्य पू. श्री शाश्वतसागरजी म.सा. ने जीवन के गूढ़ सत्य पर प्रकाश डालते हुए कहा कि जीवन के अधिकांश दुःखों की जड़ है-अपेक्षा। जब व्यक्ति किसी से अपेक्षा करता है और वह पूरी नहीं होती, तभी दुःख उत्पन्न होता है। यह अपेक्षा चाहे परिवार, समाज, व्यवस्था या मित्रों के बीच हो, हर रिश्ते में दुःख की जड़ यही है।

मुनिश्री ने कहा कि हम दूसरों को परखने के बाद भी अपेक्षा करना नहीं छोड़ते और यही हमारी पीड़ा का कारण बनता है। शास्त्रों में भी स्पष्ट कहा गया है कि अपेक्षा ही महादुःख की जड़ है। सुखी जीवन का सरल मंत्र है -निष्पृह बनो और अपेक्षा का त्याग करो।

मुनिश्री ने उदाहरण देते हुए कहा कि किसी कार्यक्रम में 100 लोगों को बुलाने पर यदि 99 लोग आते हैं और एक नहीं आता तो हम उसी एक की अनुपस्थिति को याद रखते हैं। यही छोटी-छोटी अपेक्षाएं व्यक्ति को निरंतर दुःखी करती हैं।

प्रवचन के अगले भाग में पू.श्री समर्पितसागरजी म.सा. ने कहा कि व्यक्ति केवल अस्थायी सुखों के पीछे भागता है। हर दिन भगवान से ‘लॉटरी’ की प्रार्थना करता है लेकिन पुरुषार्थ नहीं करता। भगवान भी कहते हैं कि साधनों का त्याग कर, साधना कर, पात्रता बना तब ही सफलता मिलेगी।

उन्होंने बताया कि जीवन में सुख के समय सावधानी, दुःख के समय समाधान और दूसरों के माध्यम से आत्मिक परिवर्तन का सूत्र अपनाना चाहिए। साधना और समर्पण के बिना जीवन में स्थायी सुख और सफलता नहीं मिलती।

मुनिश्री ने जोर देकर कहा कि जब तक मन और भावनाएं स्थिर नहीं होतीं, तब तक धर्म टिकता नहीं। पर जब जिनवाणी हृदय में बस जाती है, तब जीवन में प्रेम, धर्म और आत्मिक तेज स्वतः प्रकट होता है।

सभा के समापन पर बाड़मेर जैन श्रीसंघ के वरिष्ठ सदस्य श्री चम्पालाल बोथरा ने जानकारी दी कि प्रवचन में बड़ी संख्या में श्रावक-श्राविकाओं ने भाग लिया और सभी ने संयम, साधना और समर्पण का संकल्प लिया।

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