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खाद्य संयम का प्रयास करे साधक : सिद्ध साधक आचार्यश्री महाश्रमण

-‘तेरापंथ प्रबोध’ के आख्यान से भी लाभान्वित हुई जनता

-आचार्यश्री ने भोजन में विवेक रखने को किया अभिप्रेरित

04.08.2025, सोमवार, कोबा, गांधीनगर (गुजरात) :गुजरात राज्य की धरा को आध्यात्मिकता से ओतप्रोत बनाने वाले, व गुजरात की धरा पर लगातार दूसरा चतुर्मास करने वाले जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में प्रतिदिन ज्ञान, ध्यान व साधना की त्रिवेणी प्रवाहित हो रही है। इस त्रिवेणी हजारों-हजारों श्रद्धालु निरंतर गोते लगा रहे हैं। शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी की वाणी से निरंतर प्रवाहित होने वाली आगमवाणी श्रद्धालुओं के ज्ञान को पुष्ट बना रहा है तो गुरु सन्निधि में उपस्थित श्रद्धालु सामायिक, जप के दौरान ध्यान की भी आराधना कर रहे हैं। इसके साथ महातपस्वी की मंगल सन्निधि में प्रतिदिन तपस्वियों द्वारा अपनी-अपनी तपस्या के अनुरूप त्याग-प्रत्याख्यान कर अपनी साधना को पुष्ट बना रहे हैं। इसके साथ ही आचार्यश्री के पावन सान्निध्य में प्रतिदिन नित-नूतन आयोजनों के प्रारम्भ और समापन का क्रम भी निरंतर बना हुआ है, जिसके कारण पूरा चतुर्मास स्थल प्रायः जनाकीर्ण-सा बना रहता है। देश-विदेश से श्रद्धालु इस सुअवसर का लाभ उठाने को लगातार पहुंच रहे हैं।

प्रेक्षा विश्व भारती परिसर में बने भव्य एवं विशाल ‘वीर भिक्षु समवसरण’ से सोमवार को प्रातःकालीन मुख्य मंगल प्रवचन कार्यक्रम के दौरान शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने श्रद्धालुओं को पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि आयारो आगम में साधना का एक मार्गदर्शन दिया गया है। साधु जीवन में संयम की साधना करणीय होती है। इस संयम की साधना में बाधक तत्त्वों से दूर रहने अथवा बचने की प्रेरणा भी दी गई है। संयम की साधना एक बाधक तत्त्व है शरीर का आवश्यकता से अधिक हृष्ट-पुष्ट हो जाना अथवा ज्यादा रक्त, मांस से युक्त हो जाना। एक ओर कार्य करने का, साधना करने का साधन भी शरीर है और दूसरी ओर यह शरीर कहीं साधना में बाधक भी बन सकता है। शरीर सक्षम रहे, कार्यकारी रहे और इससे साधना में बाधा भी पैदा न हो, ऐसी व्यवस्था पर ध्यान देने का प्रयास करना चाहिए।

वर्तमान में संघबद्ध साधना का क्रम चल रहा है। इसमें साधु-साध्वियों की कुछ जिम्मेदारियां भी होती हैं। वृद्ध-रुग्ण साधु-साध्वियों की सेवा करना होता है, बाल साधु-साध्वियों की सेवा का दायित्व भी होता है, क्षेत्रों आदि की सार-संभाल भी करनी होती है। इन सभी कार्यों के लिए शरीर का सक्षम होना भी अपेक्षित होता है। इसके बावजूद भी आयारो में कहा गया है कि मांस और रक्त का विवेक रखने का प्रयास करना चाहिए। मांस और रक्त का उपचय न हो। इसके लिए साधक को भोजन पर ध्यान देना चाहिए। गृहस्थ आदमी को भी अपने भोजन पर ध्यान देने का प्रयास करना चाहिए। भोजन पर ध्यान दिया जाए तो साधक ही नहीं, गृहस्थ का जीवन और शरीर भी अच्छा रह सकता है।

साधक अथवा गृहस्थ को यह ध्यान देना चाहिए कि आदमी को स्वाद के लिए नहीं खाना चाहिए। आदमी को शरीर को चलाने के लिए, उसे स्वस्थ रखने के लिए यथायोग्य और उचित मात्रा में भोजन करना चाहिए। स्वाद के कारण अधिक और गरिष्ठ भोजन से बचने का प्रयास करना चाहिए। भोजन ग्रहण में उम्र का भी ध्यान रखना चाहिए। अधिक उम्र आ गई हो तो भोजन को नियंत्रित रखने का प्रयास करना चाहिए। खाने का असंयम होने से शरीर में तकलीफ भी हो सकती है तो फिर साधना में भी तकलीफ हो सकती है। आदमी को खाने में उनोदरी रखने का प्रयास करना चाहिए। जहां तक संभव हो सके, भूख से थोड़ा कम खाना स्वास्थ्य की दृष्टि से और साधना की दृष्टि से भी अच्छा हो सकता है। खाने में उनोदरी है तो स्वास्थ्य की दृष्टि से अनुकूल बात हो सकती है। जैन शासन मंे विगय वर्जन की बात भी आती है। छह प्रकार के विगय प्रचलित हैं। इनका भी समय-समय पर त्याग करने का प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार भोजन में नियंत्रण रखने हुए आदमी को मांस और रक्त का विवेक करने का प्रयास हो।

आहार का एक माध्यम तपस्या भी है। कितने-कितने लोग तपस्या करते हैं। इस समय चतुर्मास भी चल रहा है। कितने-कितने लोगों की तपस्या चल रही होगी। यह भी संयम का कितना अच्छा क्रम है। इसलिए आदमी को तपस्या आदि भी करते रहें और खाद्य में भी संयम रखते हुए शरीर को स्वस्थ और कार्यकारी बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए।

मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री ने ‘तेरापंथ प्रबोध’ के आख्यान से भी जनता को लाभान्वित किया। श्री शांतिलाल चोरड़िया ने गीत का संगान किया।

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