ज्ञान, जप और दान में न करें संतोष : अध्यात्मवेत्ता शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण
आचार्यश्री ने चतुर्मास का आध्यात्मिक लाभ उठाने को किया अभिप्रेरित

–शासनश्री मुनि रविन्द्रकुमारजी की स्मृति सभा का हुआ आयोजन*
03.07.2025, गुरुवार, शाहीबाग, अहमदाबाद।
अहमदाबाद के शाहीबाग स्थित तेरापंथ भवन में सप्तदिवसीय प्रवास के लिए विराजमान जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने इस प्रवास के अंतिम दिन गुरुवार को समुपस्थित श्रद्धालुओं को अपनी अमृतवाणी का रसपान कराते हुए कहा कि आदमी के भीतर इच्छा होती है। मन है तो इच्छा भी आसानी से उभर सकती है। विवेक और इच्छा होता है तो आदमी प्रवृत्तिमान बन सकता है। सर्वथा इच्छा मुक्त होना सामान्य मनुष्य के लिए कुछ कठिन हो सकता है, किन्तु इच्छाओं में कुछ परिष्कार हो जाए। आदमी को अशुभ इच्छाओं से बचने का प्रयास करना चाहिए। जैसे किसी का नाश हो जाए, किसी का धन मैं हड़प लूं, किसी के अनिष्ट का चिंतन, अथवा स्वयं के लिए अनावश्यक रूप में भौतिक चीजों की लालसा आदि अशुभ इच्छा होती है। दूसरी होती है सद्दीक्षा। अपने आत्मा के कल्याण की इच्छा, परकल्याण की कामना, स्वाध्याय करना, सेवा करने की इच्छा आदि सद्दीक्षा हो सकती है। किसी की कल्याण की इच्छा सद्दीक्षा होती है।
एक जगह बताया गया है कि आदमी को तीन स्थानों पर संतोष करना चाहिए और तीन स्थानों पर संतोष नहीं करना चाहिए। संतोष तो बहुत अच्छी बात है, किन्तु सभी जगह संतोष करना आवश्यक नहीं है। भोजन में संतोष किया जा सकता है। हमारे संत-साध्वियां हैं, गोचरी में जो भी मिल जाए, उसमें संतोष रखने का प्रयास करना चाहिए। कभी न भी मिले तो भी संतोष कर लेने का प्रयास करना चाहिए। साधु तो यह विचार करे कि यदि मिल गया तो शरीर को पोषण दे देगा और आहार न नहीं मिला तो आत्मा को पोषण मिलेगा। आहार न मिले तो तपस्या हो जाती है और फिर साधु को तपस्या का फल प्राप्त हो जाता है। साधु को अपनी समता में रहने का प्रयास करना चाहिए। साधु को भोजन में संतोष रखने का प्रयास करना चाहिए। गृहस्थ जीवन में भी भोजन में यथासंभव संतोष रखने का प्रयास करना चाहिए। गृहस्थ जीवन में धन के संदर्भ में भी संतोष करने का प्रयास होना चाहिए। ज्यादा धन को पाने की कामना नहीं होनी चाहिए। जितना मिल गया, उसमें संतोष का भाव होना चाहिए। धन के संदर्भ में अपनी इच्छाओं का सीमाकरण करने का प्रयास हो।
इस प्रकार यह बताया गया कि ज्ञान की प्राप्ति में सामान्यतया संतोष नहीं करना चाहिए। ज्ञान का तो जितना विकास हो सके, करते रहने का प्रयास होना चाहिए। चतुर्मास का समय समाने है। साधु-साध्वियां इस कालावधि में स्वाध्याय, अध्ययन में समय लगाएं। आगम का कार्य करना हो, परीक्षा देने का काम हो, स्वाध्याय करना, अधिक से अधिक ज्ञानार्जन का प्रयास किया जा सकता है। आचार्यश्री ने प्रसंगवश मुनिश्री धर्मरुचिजी के विषय में फरमाया और आगे कहा कि साधु-साध्वियां इस दौरान वाचन, स्वाध्याय आदि में समय लगाने का प्रयास करना चाहिए।
जप करने में भी संतोष नहीं करना चाहिए। जितना संभव हो सके, भगवान का नाम लेते रहते रहना चाहिए। जितना संभव हो जप में समय लगाने का प्रयास करना चाहिए। प्रेक्षा वर्ष चल रहा है तो जितना समय निकाल सकें, प्रेक्षाध्यान करने का प्रयास होना चाहिए। आदमी को जितना संभव हो सके, दान देने का प्रयास होना चाहिए। दान में भी संतोष नहीं करना चाहिए।
इस प्रकार अध्ययन, ध्यान, जप और दान में संतोष नहीं करना चाहिए। भौतिक इच्छाओं का सीमाकरण और आध्यात्मिक इच्छाओं को यथासंभवतया पुष्ट रखने का प्रयास करना चाहिए। मोहग्रस्त व मूढ़ लोग असंतोषी होते हैं और पंडित और ज्ञानी लोग संतोष को धारण करते हैं। चतुर्मास के दौरान ज्ञान, तपस्या आदि में जितनी अच्छी गति हो सके, करने का प्रयास हो।
आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त शासनश्री मुनिश्री रविन्द्रकुमारजी की स्मृति सभा का आयोजन भी हुआ, जिसमें आचार्यश्री ने उनका संक्षिप्त जीवन परिचय प्रदान करते हुए उनकी आत्मा के ऊर्ध्वारोहण के लिए चतुर्विध घर्मसंघ के साथ चार लोगस्स का ध्यान कराया। मुख्यमुनिश्री महावीरकुमारजी, साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी, मुनि मदनकुमारजी, मुनि ध्यानमूर्तिजी ने भी उनकी आत्मा के प्रति आध्यात्मिक मंगलकामना की। उनके परिजनों की ओर अभिव्यक्ति दी गई। श्री सूर्यप्रकाश मेहता, श्री कमलेश छाजेड़ ने अपनी अभिव्यक्ति दी।
मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री महाश्रमणजी शाहीबाग स्थित तेरापंथ भवन से विहार कर कुछ ही दूरी पर स्थित दुगड़ परिवार के स्थान सागर सदन में पधारे। यह वहीं स्थान है, जहां तेरापंथ धर्मसंघ के नवमाधिशास्ता आचार्यश्री तुलसी ने अहमदाबाद का चतुर्मास किया था। आचार्यश्री यहां रात्रिकालीन प्रवास करेंगे।