सुख की खोज में नहीं,आत्मा की स्थिरता में है असली सुख-मुनि शास्वतरत्नसागरजी म.सा.

सूरत। पर्वत पाटिया स्थित कुशल दर्शन दादावाड़ी में चातुर्मासिक विराजित खरतरगच्छाचार्य श्री जिन पीयूषसागर सूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य प.पू. मुनि श्री शास्वतरत्नसागरजी म.सा. ने प्रवचनमाला के दौरान आध्यात्मिक दृष्टिकोण से जीवन की “सुख-यात्रा” का विश्लेषण करते हुए गूढ़ और मार्मिक संदेश दिया। उन्होंने कहा कि व्यक्ति हमेशा इस भ्रम में जीता है कि “कभी तो, कहीं तो, कोई तो देगा सुख”, लेकिन यह तीनों शब्द महज भ्रम और धोखा हैं — “कभी” कभी आता नहीं, “कहीं” कहीं होता नहीं और “कोई” कभी सुख दे नहीं पाता। यह सब कल्पनाएं हैं, और इनका पीछा करते-करते इंसान सुख से दूर और दुःख के करीब पहुँच जाता है।
मुनिश्री ने उदाहरणों के माध्यम से बताया कि किस प्रकार महिलाएं किटी पार्टी में जाकर तब तक प्रसन्न नहीं होतीं जब तक ‘कॉर्नर’ या ‘लाइन’ नहीं जीततीं — यानी सुख की शर्तें बाहरी हैं। युवक गांव से शहर आता है, व्यापार करता है, फिर मकान बनाता है, फिर परिवार बसाता है… पर ‘अब–अब–अब’ की दौड़ कभी खत्म नहीं होती। सास को लगता है कि बहू के आने से सुख आएगा, लेकिन जब बहू आती है, तो और जिम्मेदारियाँ बढ़ जाती हैं।
उन्होंने कहा कि आज व्यक्ति घर और दुकान के बीच झूल रहा है। घर में चैन नहीं तो दुकान जाता है, दुकान पर तनाव है तो घर लौट आता है — लेकिन कहीं भी सच्चा सुख नहीं मिलता। यह जीवन अब “सुख की खोज में, दुख की भागदौड़” बन चुका है।
मुनि श्री ने स्पष्ट किया कि सुख कहीं बाहर नहीं है, वह व्यक्ति के भीतर है, लेकिन लोग उसे रिश्तों, नाम, पैसा, प्रतिष्ठा, मकान-दुकान जैसी बाह्य वस्तुओं में ढूंढते रहते हैं। यह सब “मृगतृष्णा” के समान है।
उन्होंने अपने प्रवचन में तीन धोखादायक शब्दों –कभी, कहीं, कोई -की गूढ़ व्याख्या करते हुए कहा कि यही तीन शब्द व्यक्ति को भ्रमित करके सच्चे सुख से दूर ले जाते हैं।
प्रवचन का मूल संदेश यही था कि सच्चा सुख आत्मा की स्थिरता, संतोष और आंतरिक शांति में है। जितना बाहर दौड़ोगे, उतना भीतर खालीपन अनुभव होगा। बाहर के आकर्षणों और भ्रमों से मुक्ति ही परम सुख का मार्ग है।
प्रवचन के पश्चात संघ के ट्रस्टी व पूर्व अध्यक्ष श्री चम्पालाल बोथरा ने बताया कि उपस्थित जनसमुदाय ने मुनिश्री की वाणी को भावविभोर होकर आत्मसात किया। कई श्रद्धालुओं ने सामायिक और आत्मचिंतन में भाग लिया। साध्वी श्री प्रमोदिता श्रीजी म.सा. के दीक्षा दिवस की अनुमोदना की गई। साथ ही बाहर से पधारे मेहमानों का स्वागत सत्कार हुआ। आगामी चार माह के चातुर्मास काल में तपस्वियों और साधक मेहमानों के आतिथ्य-सत्कार हेतु आगे आए समाजबंधुओं का सार्वजनिक बहुमान भी किया गया।
प्रवचन का समापन मुनिश्री के प्रेरणास्पद वाक्य से हुआ — “सुख की दौड़ को विराम दो… स्वयं में झांको… वहीं प्रभु का और परम सुख का वास है।”