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आत्मा व शरीर का संयुक्त होना ही जीवन : युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण

शाहीबाग प्रवास के पांचवें दिन जीवन को साधनामय बनाने को आचार्यश्री ने किया अभिप्रेरित

-साध्वीवर्याजी ने भी किया उद्बोधित, श्रद्धालुओं ने भी दी भावनाओं को अभिव्यक्ति

-अहमदाबाद की मेयर श्रीमती प्रतिभा जैन ने भी दर्शन कर प्राप्त किया आशीष

*01.07.2025, मंगलवार, शाहीबाग, अहमदाबाद।अहमदाबाद के शाहीबाग में सप्तदिवसीय प्रवास के पांचवें दिन जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा प्रणेता, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मंगलवार को तेरापंथ भवन में उपस्थित श्रद्धालुओं को अपने श्रीमुख से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि आदमी जीवन जीता है। जीवन में दो तत्त्व हैं- आत्मा और शरीर। इन दोनों का मिश्रित रूप जीवन होता है। यह शारीरिक जीवन वहीं होता है, जहां आत्मा और शरीर मिले हुए होते हैं। कोरी आत्मा होती है, वहां जीवन नहीं होता। जैसे सिद्ध भगवान, जहां केवल शुद्ध आत्माएं हैं। वहां शरीर नहीं होने से कोई जीवन नहीं होता। इसी प्रकार जिस शरीर से आत्मा निकल जाती है, वहां भी जीवन नहीं होता। इसलिए जीवन वहीं होता है, जहां आत्मा और शरीर का मिश्रण होता है।

प्रश्न हो सकता है मृत्यु क्या है? उत्तर दिया गया है कि शरीर और आत्मा का अलग-अलग हो जाना मृत्यु है। शरीर और आत्मा का संयुक्त होना जीवन और वियुक्त हो जाना मृत्यु है। एक प्रश्न और हो सकता है कि मोक्ष क्या है? उत्तर दिया गया है कि शरीर और आत्मा का हमेशा के लिए सम्पूर्णतया वियुक्त हो जाना मोक्ष हो जाता है। वर्तमान समय में जो आदमी जीवन जी रहा है तो वहां उसके पास शरीर भी है। शरीर है तो कितनी-कितनी चीजें चाहिए होती हैं। भोजन चाहिए, कपड़े चाहिए, मकान चाहिए और अनेक प्रकार के पदार्थ चाहिए यानी जीव को पदार्थों का सहयोग चाहिए। पदार्थों के बिना जीवन जीना मुश्किल है। ऐसी स्थिति में साधुओं को भी पदार्थों का सहयोग लेना होता है। इसमें साधना की बात यह होती है कि ममत्व, मोह और राग नहीं करना।

आदमी यह विचार करे कि आत्मा अलग और शरीर अलग है। पदार्थों का उपयोग तो जीवन चलाने के लिए किया जा सकता है, किन्तु पदार्थों के प्रति ज्यादा, राग, मोह, मूर्च्छा नहीं होनी चाहिए। शरीर अलग और आत्मा अलग है, इसका विचार सदैव रहना चाहिए। मैं आत्मा हूं, शरीर नहीं, ऐसा चिंतन हो तो मोह, ममत्व से बचा जा सकता है।

पदार्थों का उपयोग करते हुए भी पदार्थों के प्रति आसक्ति, ममत्व का भाव न जुड़े, ऐसा प्रयास होना चाहिए। अध्यात्म की साधना में आत्मा और शरीर का अलग होने की थ्योरी महत्त्वपूर्ण है। आदमी को आत्मा अलग और शरीर अलग तथा पुनर्जन्म के सिद्धांत को मानकर ही चलने का प्रयास करना चाहिए। अच्छी साधनायुक्त जीवन जीने से अगर आगे कुछ होगा तो लाभ ही होगा और नहीं है तो कोई हानि की बात नहीं होती।

आदमी के जीवन में साधना रहे, नैतिकता रहे, अहिंसा रहे। जीवन में जितना संभव हो सके, धर्म-ध्यान करने का प्रयास होना चाहिए। चतुर्मास का समय अब निकट आ रहा है। इसमें तपस्या, साधना आदि का क्रम भी चलाया जा सकता है। आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी सामने आ रही है। त्रयोदशी से पूर्णिमा तक तेला किया जा सकता है। चारित्रात्माओं में कई तपस्या करने वाले होते हैं। गृहस्थों में भी कितने आगे बढ़ने वाले हो सकते हैं। इसलिए आदमी शरीर का उपयोग जितना साधना में उपयोग करे, वह उसके लिए लाभप्रद हो सकता है। इस शरीर के माध्यम से बहुत अच्छा धर्म की साधना करने का प्रयास करना चाहिए। साधु-साध्वियां भी जितना हो सके, विशेष साधना का प्रयास होना चाहिए।

प्रेक्षा विश्व भारती परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की चतुर्मास भूमि है। 22 चतुर्मासों के उपरान्त प्रेक्षा विश्व भारती में दूसरा चतुर्मास होने का अवसर आ रहा है। चतुर्मास का लाभ उठाने का प्रयास होता रहे, यह काम्य है।

आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त साध्वीवर्या साध्वी सम्बुद्धयशाजी ने समुपस्थित जनता को उद्बोधित किया। गुरुदर्शन करने वाली साध्वी अर्हतप्रभाजी, डॉ. धवल दोसी, श्री राकेशकुमार सिपानी व श्री अशोक कुमार सेठिया ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। तेरापंथ महिला मण्डल-अहमदाबाद की अध्यक्ष श्रीमती हेमलता परमार, श्री विमल बोरदिया ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी।

आज आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में अहमदाबाद की मेयर श्रीमती प्रतिभा जैन भी उपस्थित हुईं और अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करते हुए आचार्यश्री से मंगल आशीर्वाद प्राप्त किया।

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