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भेद ज्ञान, कर्मसिद्धांत और अनेकान्तवाद ये तीन सिद्धांत जैन दर्शन में मुख्य है- आचार्य डॉ. शिवमुनि

आत्म भवन, बलेश्वर, सूरत।आचार्य सम्राट डॉ. शिवमुनि जी म.सा. ने अपने उद्बोधन में फरमाया कि घर में व्यक्ति माला,जाप,तप आदि करते है तो उस उसका ध्यान केवल शरीर पर है या आत्मा पर है वह विचारणीय है। यदि जीव पर ध्यान है तो कर्मों की निर्जरा हो रही है। धर्म की शुरूआत है इस आकार में निराकार आत्मा को देखना और जानना। किसी राहगीर को गंतव्य स्थान तक पहुंचने के लिए स्थान का पता नहीं है तो वह घूमता रहेगा वह गंतव्य स्थान तक नहीं पहुंच पाता है। इसी प्रकार जन्म-मृत्यु के चक्र में व्यक्ति घूमता रहता है और उससे छूटकारा पाने के लिए आत्मा में स्थित रहने का प्रयास करना चाहिए।
जैन दर्शन के सिद्धांतों की चर्चा करते हुए फरमाया कि भेद ज्ञान, कर्मसिद्धांत और अनेकान्तवाद ये तीन सिद्धांत जैन दर्शन में मुख्य है। भेद ज्ञान जिसमें जड़-जीव का भेद करना, कर्मसिद्धांत में जो कुछ मिला है वह अपने कर्मों के अनुसार मिला है और तीसरा है अनेकान्तवाद जिसमें आग्रह की भावना नहीं होती है कि मैं जो कह रहा हूं वही सत्य है, अनेकान्त से घर-परिवार में क्लेश
नहीं होता है।
उन्होंने बच्चों को अच्छे संस्कार प्रदान करने की प्रेरणा देते हुए फरमाया कि सती मदालसा ने अपने सातों बच्चों को संत बना दिया, उन्होंने अपने बच्चों को बचपन से यह संस्कार दिये कि ‘तुम शुद्ध हो, तुम बुद्ध हो।’ तुम शुद्ध आत्मा हो आगे जाकर ये सातों बच्चे सन्यासी बन जाते हैं,इसलिए बचपन में दिये गये संस्कार का विशेष महत्त्व होता है।
उन्होंने यह भी फरमाया कि जब कोई भी व्यक्ति यात्रा करके आता है तो सायंकाल में आलोचना प्रतिक्रमण करे। जो व्यक्ति सूक्ष्म जीवों से प्राणी मात्र से क्षमा मांगते हुए प्रतिक्रमण आलोचना करता है तो पाप कर्म के बंधन से बच जाता है। व्यक्ति मन से पाप कर लेता है और मन से ही मोक्ष चला जाता है, ध्यान के लिए मन, वचन, काया का भी विशेष महत्त्व होता है। जो व्यक्ति मन, वचन, काया से आलोचना करता है तो उसके पापकर्म दूर होते हैं।
प्रमुख मंत्री श्री शिरीष मुनि जी म.सा. ने अपने उद्बोधन में फरमाया कि जो ज्ञानी है वह आत्मा में स्थित रहता है, जो ध्यानी है वह शरीर का उपयोग आत्मा के लिए करता है, जो अज्ञानी है वह शरीर का उपयोग शरीर के लिए करता है। क्रिया का उद्देश्य आत्मा के लिए होना चाहिए। इस औदारिक शरीर पर जब कर्म निकले तो उस समय जीव में रहने का प्रयास करना चाहिए। स्वभाव में रहकर कोई भी क्रिया करते हैं तो निर्जरा होती है। एक उद्योगपति है तो वह यह सोचे कि मैं तो केवल ट्रस्टी हूं सब व्यक्ति अपना-अपना कार्य कर रहे हैं इस प्रकार स्वभाव में रहने वाला एक उद्योगपति भी कर्म बंधन से मुक्त रह सकता है। सभा में बोईसर (मुंबई) श्रीसंघ महिला मण्डल आचार्य भगवन के दर्शन हेतु उपस्थित हुआ।

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