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दुःखों की जननी है हिंसा : अहिंसा यात्रा प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमण

गृहस्थों को भी हिंसा का अल्पीकरण करने को आचार्यश्री ने किया अभिप्रेरित

आगमवाणी के उपरान्त ‘तेरापंथ प्रबोध’ के आख्यान से भी जनता हुई लाभान्वित

31.07.2025, गुरुवार, कोबा, गांधीनगर (गुजरात) :

आयारो आगम में बताया गया कि दुःख का कारण आरम्भ हिंसा है। हिंसा दुःखों की जननी होती है। दुःख के अनेक कारण हो सकते हैं। लोभ, गुस्से से दुःख हो सकता है, हिंसा भी कभी लोभ से तो कभी दुःख से तो कभी भय से जुड़ी हुई हो सकती है। लोभ, आक्रोश, भय आदि हिंसा के परिवार के सदस्य ही हैं। आदमी व्यावहारिक रूप से देखे और निश्चय रूप में भी देख सकता है। व्यावहारिक रूप में देखा जाए तो जहां हिंसा होती है, वहां दहशत फैल जाती है और लोग दुःखी हो जाते हैं। कभी झूठ अफवाह ही फैला दी जाए कि फलाने हवाई अड्डे को बम से उड़ा दिया जाता है तो दहशत-सी मच जाती है। हिंसा की बात भी दुःख का कारण बन सकती है। युद्ध भले दो राष्ट्रों के बीच हो रहा हो तो दोनों देशों के आम नागरिक दहशत में ही होते हैं। हिंसा की बात मानसिक दहशत फैलाने वाली और आदमी को दुःखी बनाने वाली हो सकती है।

 

इसलिए अहिंसा में सुख और हिंसा से दुःख पैदा होता है। हिंसा की बात मानसिक दहशत फैलाने वाली और आदमी को दुःखी बनाने वाली बन जाती है। वहीं जहां

बात अहिंसा की हो, शांति की हो, वहां सुख का अनुभव भी किया जा सकता है। इसलिए कहा गया है कि हिंसा में दुःख और अहिंसा में सुख होता है। हिंसा के कारण विकास भी बाधित हो जाता है। दो देशों के युद्ध में कितना पैसा लगता होगा, कितने लोग मरते होंगे। जो पैसा युद्ध में लगता है, वह पैसा अन्य विकास कार्यों में लगाया जाता तो देश का कितना विकास हो सकता है। युद्ध के कारण विकास भी मानों अवरुद्ध-सा हो जाता है। अर्थ की भी हानि होती है, जन हानि भी होती है तो मृतक के परिवारों के लोग भी दुःखी बनते हैं। एक हिंसा के कारण व्यावहारिक रूप में भी कितनी कठिनाइयां, दहशत व मानसिक अशांति की स्थिति भी बन सकती है। इसलिए आदमी यह जानकर जहां तक संभव हो सके, आदमी को हिंसा से बचने का प्रयास करना चाहिए।

हिंसा का परिणाम कई बार अगले जन्म में भी प्राप्त हो सकता है। हिंसा से अशांति और अहिंसा से शांति की स्थापना होती है। यह जानकर आदमी को हिंसा को छोड़कर अहिंसा के मार्ग पर चलने का प्रयास करना चाहिए। आदमी को अपने भीतर सहिष्णुता का विकास करने का प्रयास करना चाहिए। स्वयं की शांति अपने लिए तो अच्छी होती ही है, दूसरों के लिए भी अच्छी हो सकती है। जीवन चलाने के लिए खेतीबाड़ी, रसोई आदि में भी हिंसा होती है, उसे तो नहीं छोड़ा जा सकता, लेकिन जहां तक संभव हो सके, उसमें भी हिंसा के अल्पीकरण का प्रयास करना चाहिए।

आदमी कोई धंधा भी करे तो उसमें भी अहिंसा का ध्यान रखा जा सकता है। गृहस्थ जीवन जीते हुए भी हिंसा का अल्पीकरण करने का प्रयास होना चाहिए। उक्त पावन पाथेय जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ एकादशमाधिशास्ता, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘वीर भिक्षु समवसरण’ में उपस्थित श्रद्धालुओं को गुरुवार को प्रदान की। आचार्यश्री के श्रीमुख से आगम वाणी और उससे संदर्भित प्रेरणा प्राप्त कर जनता निहाल हो रही है। मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री ‘तेरापंथ प्रबोध’ के संगान व आख्यान से जनता को लाभान्वित किया।

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