बाड़मेर जैन श्री संघ के वर्षावास प्रवचन में पाप की पहचान और प्रतिक्रमण का महत्व

बाड़मेर। जैन श्री संघ द्वारा आयोजित सर्वमंगलमय वर्षावास का शुभारंभ खरतरगच्छाचार्य परम पूज्य आचार्य भगवंत श्री जिनपीयूषसागर सूरीश्वरजी म.सा. के मंगलाचरण और मंगल गीत के साथ हुआ। अवसर पर मुनि श्री शाश्वत सागरजी म.सा. ने प्रवचन श्रृंखला की शुरुआत करते हुए श्रावक-श्राविकाओं को आत्मकल्याण का सच्चा मार्ग समझाया।
प्रवचन का मुख्य विषय “पापों की पहचान और प्रतिक्रमण का महत्व” रहा। मुनि श्री ने कहा कि पाप की पहचान केवलज्ञान का प्रथम चरण है और आत्मा को केवलज्ञान तक ले जाने के लिए अपने दोषों की स्वीकृति आवश्यक है। भगवान बहुबली का उदाहरण देते हुए उन्होंने समझाया कि अहंकार और आत्म-दोषों की पहचान न होने से उन्हें तत्काल केवलज्ञान नहीं मिला, किंतु जब आत्मबोध हुआ और पापों की स्वीकृति हुई तो उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। इसी प्रकार अंसन्ता मुनि और अर्जुनमाली ने भी पापों को स्वीकार कर पश्चाताप किया तो केवलज्ञान की प्राप्ति हुई।
उन्होंने स्पष्ट किया कि सच्चा प्रतिक्रमण तभी संभव है जब व्यक्ति अपने दोषों को स्वीकार करे। “मिच्छामि दुक्कडम् केवल औपचारिक शब्द नहीं, बल्कि आत्मा की गहराई से निकली हुई नम्रता और क्षमा की भावना है। सच्चा ‘मिच्छामि दुक्कडम्’ वही है, जब हम उस व्यक्ति से भी क्षमा माँगें, जिसके प्रति हमारे मन में कटुता है।”
प.पू. मुनि श्री समर्पित रत्न सागरजी ने अपने प्रवचन में जीवन की तुलना एक नाव से करते हुए कहा कि मृत्यु का कारण बाहरी परिस्थितियाँ नहीं, बल्कि आत्मा पर चढ़े कर्मबंध हैं। उन्होंने उदाहरण स्वरूप एक कथा सुनाई जिसमें नाविक ने स्पष्ट किया कि मृत्यु घर हो या नाव—उसका मूल कारण कर्मबंधन ही है।
मुनि श्री ने आगे कहा कि जगत की कोई भी शरण अन्ततः भय और मृत्यु का कारण बनती है, केवल धर्म की शरण ही ऐसी है, जो मृत्यु के बाद भी आत्मा को सद्गति और समाधि प्रदान करती है। उन्होंने क्रियात्मक धर्म (तप, संयम, प्रतिक्रमण, उपवास) और भावनात्मक धर्म (भक्ति, विनय, क्षमा, समर्पण) दोनों में संतुलन बनाने की आवश्यकता बताई और कहा कि जब क्रिया और भावना दोनों साथ जुड़ते हैं, तभी आत्मा मोक्ष के पार पहुँचती है।
जैन श्री संघ के वरिष्ठ सदस्य चम्पालाल बोथरा ने प्रवचन के सार को रेखांकित करते हुए कहा कि आत्मा को पाप-कर्मों से हल्का करना और धर्म की सच्ची शरण लेना ही मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है। पाप की पहचान, उसका पश्चाताप और प्रतिक्रमण ही संवत्सरी प्रतिक्रमण की वास्तविक साधना है।
आज का प्रवचन संघजनों के लिए प्रेरणादायी अनुभव सिद्ध हुआ और धर्ममार्ग पर चलने के लिए एक सशक्त नींव प्रदान करने वाला रहा।