संसारिक सुख क्षणभंगुर, आत्मिक सुख ही शाश्वत :श्री श्रास्वत सागरजी म.सा.

जसूरत। पर्वत पाटिया स्थित कुशल दर्शन दादावाड़ी में जारी चातुर्मास प्रवचनमाला के अंतर्गत पूज्य खरतरगच्छाचार्य श्री जिन पीयूषसागरजी म.सा. के शिष्य संयम सारथी श्री श्रास्वत सागरजी म.सा.हने अपने प्रवचन में जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई को उजागर करते हुए कहा कि संसारिक सुख क्षणभंगुर होते हैं जबकि आत्मिक सुख ही शाश्वत है।
उन्होंने फरमाया कि मनुष्य भव मिलना दुर्लभ है, लेकिन आज का मानव संसाधनों के बावजूद भी वास्तविक सुख और शांति से वंचित है। शरीर रोगग्रस्त, मन चिंता और ईर्ष्या में उलझा हुआ है और आत्मा भ्रमित अवस्था में भटक रही है, जिससे सुख अधूरा और अस्थायी बन जाता है।
पूज्य श्री ने सरस उदाहरण देते हुए समझाया कि जैसे मधुमेह पीड़ित व्यक्ति के सामने मिठाई रखी हो, लेकिन वह खा नहीं सकता, उसी प्रकार संसारिक सुख भी कई बार भोग के योग्य नहीं रह जाते। सुख की तलाश जब बाहरी साधनों में होती है तो वह दुःख में परिवर्तित हो जाती है।
उन्होंने स्पष्ट कहा कि पुण्य से संसाधन तो मिल सकते हैं लेकिन उनका वास्तविक सुखद उपयोग संयम और साधना के बिना संभव नहीं है। सच्चा आनंद आत्मा के भीतर है जो संयम, श्रद्धा और समत्व से प्राप्त होता है।
इस अवसर पर पूज्य समर्पित सागरजी म.सा. ने ‘आत्मविश्वास और साधना के रहस्य’ पर प्रकाश डालते हुए कहा कि विनम्रता व्यक्ति को ऊँचाई देती है लेकिन हीन भावना से जीवन में गिरावट आती है। साधक को भीतर आत्मबल और गंभीरता के साथ उतरना चाहिए, तभी आत्मज्ञान की प्राप्ति संभव है।
बाड़मेर जैन श्री संघ के चम्पालाल बोथरा ने बताया कि सभा में बड़ी संख्या में श्रावक-श्राविकाओं ने उपस्थित रहकर प्रवचन श्रवण किया और संयम-साधना के पथ पर अग्रसर होने का संकल्प लिया।