कर्मों को नष्ट करती है निर्जरा : सिद्ध साधक आचार्यश्री महाश्रमण
महातपस्वी की मंगल सन्निधि में सपाद कोटि जप अनुष्ठान का हुआ शुभारम्भ

कर्मों को नष्ट करती है निर्जरा : सिद्ध साधक आचार्यश्री महाश्रमण
-आचार्यश्री ने अति से बचने और कर्म निर्जरा करने के लिए किया अभिप्रेरित*
-‘तेरापंथ प्रबोध’ आख्यानमाला को शांतिदूत ने बढ़ाया आगे
01.08.2025, शुक्रवार, कोबा, गांधीनगर (गुजरात) :
जन-जन के मानस को आध्यात्मिक रूपी निर्मल जल से अभिसिंचन प्रदान करने वाले, जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी अहमदाबाद चतुर्मास के दौरान श्रद्धालुओं को ‘आयारो’ आगम के माध्यम से पावन प्रेरणा प्रदान कर रहे हैं। आचार्यश्री की कल्याणीवाणी जन-जन का कल्याण कर रही है। आचार्यश्री की अमृतमयी वाणी का रसपान करने के लिए प्रतिदिन हजारों की संख्या में लोगों की भीड़ उमड़ती है। इसके साथ-साथ नित नए धार्मिक, व सांगठनिक कार्यक्रमों के आयोजनों से यह परिसर जनाकीर्ण से बना हुआ है। शुक्रवार को महातपस्वी आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में नमस्कार महामंत्र के सपाद कोटि जप अनुष्ठान का प्रारम्भ हुआ, जिसमें भाग लेने वाले श्रद्धालुओं को आचार्यश्री ने नमस्कार महामंत्र का जप कराकर इस अनुष्ठान का शुभारम्भ कराया।
इसके पूर्व प्रेक्षा विश्व भारती परिसर में बने भव्य एवं विशाल ‘वीर भिक्षु समवसरण’ में समुपस्थित जनता को युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘आयारो’ आगम के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि संस्कृत में एक सूक्त प्रदान किया गया है- अति सर्वत्र वर्जेयेत। अति का सब जगह वर्जन करो। आदमी को हर चीज की सीमा का ध्यान रखने का प्रयास करना चाहिए। एक सीमा में आदमी दूध का उपयोग करे तो लाभ हो सकता है, लेकिन सीमा से अधिक प्रयोग किया जाए तो वह दुःखदायी हो सकता है। एक सीमा तक किसी वस्तु का सेवन लाभदायी और सीमा से ज्यादा सेवन नुक्सानदेह भी बन सकता है। शास्त्र में इस उदाहरण के माध्यम से यह बताया गया कि जिस प्रकार अग्नि जीर्ण-शीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला देती है, किसी प्रकार निर्जरा मानव के कर्म को नष्ट कर देती है। तप रूपी अग्नि में कर्म रूपी काष्ठ पड़ता है तो वह तप रूपी अग्नि कर्म रूपी काष्ठ को जलाकर नष्ट कर देती है।
साधना के क्षेत्र में निर्जरा की बात आती है। संवर तो है ही, यदि कोई साधु तप, सेवा, साधना, स्वाध्याय करता है तो उसके कर्मों की निर्जरा होती है। गृहस्थ, श्रावक भी कर्म निर्जरा कर सकते हैं। श्रावक के देशविरति संवर होने पर भी वह कर्मों की निर्जरा कर सकता है। आदमी को अपने संवर, निर्जरा और त्याग-तपस्या को और अधिक लाने का प्रयास करना चाहिए। आदमी को अपने कर्मों को काटने के लिए निर्जरा की साधना करने का प्रयास करना चाहिए। आदमी जब जितनी देर अच्छा धार्मिक स्वाध्याय करता है तो स्वाध्याय से भी कर्म निर्जरा हो सकती है। आदमी स्थिर होकर जप करता है, कोई लम्बी तपस्या हो सकती है। आदमी को जितना संभव हो सके, आदमी को उपवास करना हो तो साध्वधानीपूर्वक उपवास का उपयोग करना चाहिए। उपवास भी एक तपस्या और साधना है। कठिन तपस्या न हो, उपवास भी न हो तो आदमी को नवकारशी, पोरुषी कर ले। इस प्रकार आदमी त्याग, संयम और तपस्या करता जाए तो वह अपनी कर्मों का निर्जरा कर सकता है। साधु-साध्वियां सेवा के माध्यम से परिचर्या के माध्यम से भी अच्छी तपस्या कर सकते हैं।
जो आदमी शांत चित्त वाला होता है, समाहित आत्मा वाला होता है और कषायों से अप्रताड़ित होता है, वह अपनी तपस्या व साधना द्वारा अपने कर्मों को जलाता है, कर्मों को नष्ट कर देता है। आदमी को अपने कर्म शरीर को कामजोर अथवा कृश करने का प्रयास होना चाहिए। विनय से भी कर्म निर्जरा हो सकती है और शुभ योग भी बनता है। इस प्रकार अनेक प्रकार से तपस्या, साधना व सेवा का प्रकल्प बनाया जा सकता है। अनेक रूपों में तपस्या, साधना अनुकंपा के द्वारा आदमी को कर्मों की निर्जरा करते रहने का प्रयास करना चाहिए। आदमी गुस्से में कभी न बोले, यह भी एक अच्छी साधना हो सकती है। इसलिए आदमी को कर्म निर्जरा के द्वारा कर्म शरीर को कृश बनाने का प्रयास करना चाहिए।
मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री ने ‘तेरापंथ प्रबोध’ की वाख्यानमाला के माध्यम से परम पूज्य आचार्यश्री भिक्षु के जीवन प्रसंगों का वर्णन किया। आज से आचार्यश्री की पावन सन्निधि में एक माह तक चलने वाले सपाद कोटि जप अनुष्ठान का प्रारम्भ हुआ। इस जप में भाग लेने वाले लोगों को आचार्यश्री नवकार मंत्र का जप कराकर जप अनुष्ठान का शुभारम्भ कराया। मुनि राजकुमारजी ने गीत का संगान करते हुए लोगों को तपस्या की प्रेरणा प्रदान की।