आज्ञा ही धर्म है, आज्ञा ही तप है”-आचार्य सम्राट शिवमुनिजी म.सा.

बलेश्वर, सूरत।श्री आचारांग सूत्र, श्री तत्वार्थ सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र सहित जैन दर्शन के विभिन्न मूल ग्रंथों पर आधारित प्रेरणादायी विचारों से आचार्य सम्राट डॉ. श्री शिवमुनिजी म.सा. ने धर्मसभा को संबोधित किया। उन्होंने भगवान महावीर की साधना का उल्लेख करते हुए फरमाया कि “आज्ञा ही धर्म है, आज्ञा ही तप है। अरिहंत परमात्मा की आज्ञा ही सर्वोपरि होती है।”
आचार्य श्री ने श्री आचारांग सूत्र के प्रथम सूत्र का उल्लेख करते हुए कहा कि तीर्थंकर भगवान के वचनों के अनुसार संयम की परिपालना करनी चाहिए। शरीर को तीनों लोक के समान बताते हुए उन्होंने कहा कि “इस शरीर रूपी लोक में जीव-अजीव के भेद को जानकर साधना करना ही आत्मकल्याण का मार्ग है।”
आचार्य श्री ने श्री तत्वार्थ सूत्र और उत्तराध्ययन सूत्र की व्याख्या करते हुए कहा कि सभी जैन सम्प्रदाय श्री तत्वार्थ सूत्र को मान्यता देते हैं। इसमें “सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक आचरण” को मोक्षमार्ग का आधार बताया गया है। उन्होंने बताया कि आचार्य आत्मारामजी म.सा. ने इस सूत्र का गहन अध्ययन कर समस्त शास्त्रों का सार प्रस्तुत किया।
अभयदान की महिमा बताते हुए आचार्य श्री ने कहा, “जो स्वयं भयमुक्त रहता है और किसी भी प्राणी को भय नहीं देता, वही सच्चा अभयदाता है। यह दान में श्रेष्ठतम है।” उन्होंने समझाया कि जैन साधु पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय – इन छह प्रकार के जीवों की हिंसा से बचते हैं।
उन्होंने ‘सोह्म’ सूत्र की व्याख्या करते हुए बताया कि सभी जीवों में आत्मा समान है। “जो ज्ञान का निषेध करता है, वह अंततः आत्मा का भी निषेध करता है।” अतः ‘सोहम’ की साधना के माध्यम से प्राणी मात्र के प्रति मंगल भावना रखनी चाहिए।
प्रमुख मंत्री श्री शिरीष मुनिजी म.सा. ने दशवैकालिक सूत्र की आठवीं गाथाओं का विवेचन करते हुए फरमाया कि “ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए साधु केवल साधुओं के साथ और साध्वियाँ केवल साध्वियों के साथ ही संपर्क रखें।” साथ ही उन्होंने गरिष्ठ भोजन को रोगों का मुख्य कारण बताया और संयमित आहार का आग्रह किया।
युवा मनीषी श्री शुभम मुनिजी म.सा. ने भजन “अपने अंतर में उतर कर देख लो, निज के दर्पण में नज़र भर देख लो…” की सुमधुर प्रस्तुति देकर धर्मसभा में भावनात्मक रस प्रवाहित कर दिया।