प्रशस्त, उदात्त व यथार्थ हो चिंतन : युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण
-आसमान में छाए रहे मेघ, तेरापंथ के महामेघ ने किया लगभग 9 कि.मी. का विहार

-दलानी मुवाड़ी गांव के गोगा मंदिर धर्मशाला में पधारे शांतिदूत
17.06.2025, मंगलवार, दलानी मुवाड़ी, साबरकांठा।भारत में मानूसन के सक्रिय होते ही धरती ने मानों हरियाली की चादर ओढ़ ली है। किसान अब अपने-अपने खेतों को तैयार कर फसलों की बुआई आदि में जुटने लगे हैं। ऐसे में मानवता का शंखनाद करते हुए जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, महातपस्वी, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना का कुशल नेतृत्व करते हुए गुजरात की धरा पर लगातार दूसरे चतुर्मास के लिए अहमदाबाद की ओर गतिमान हैं। मंगलवार को प्रातःकाल की मंगल बेला में जब आचार्यश्री ने अगले गंतव्य की ओर प्रस्थान किया तो मानूूसनी बरसात ने मौसम को सुहावना बना दिया था। आसमान में छाए बादल और जल से सराबोर धरती को छूकर बहती बयार शीतलता प्रदान कर रही थी। इसके बावजूद भी आचार्यश्री के दर्शन को ग्रामीण स्थान-स्थान पर प्रतीक्षा कर रहे थे। बरसाती मौसम में भी लगभग नौ किलोमीटर का विहार कर शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी दलानी, मुवाड़ी में स्थित गोगा मंदिर धर्मशाला में पधारे।
महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने समुपस्थित जनता को पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि आदमी किसी विषय में सोचता है, चिंतन करता है। सोचना प्राणी की एक प्रवृत्ति होती है। आदमी नहीं भी चाहे तो अनपेक्षित विचार भी दिमाग में आते रहते हैं। चिंतन की अधिकता और चिंतन की मलीनता भी होती है। आदमी को ऐसा प्रयास करना चाहिए कि उसका चिंतन मलीन न बने। आदमी कभी अहंकार, कभी गुस्से में किसी के अनिष्ट का चिंतन करता है तो ये सारी बातें चिंतन की मलीनता होती है।
कई बार आदमी सोचते-सोचते दुःखी बन जाता है। आदमी कई बार पुरानी और बुरी बातों को याद कर दुःखी हो जाता है। आदमी का चिंतन प्रशस्त और उदात्त तथा यथार्थ होना चाहिए। जैसा है वैसा चिंतन करना वास्तविक चिंतन होता है। एक ग्लास में आधा दूध भरा हुआ है। एक व्यक्ति उसे कहता है कि आधा ग्लास दूध से भरा हुआ है और दूसरा व्यक्ति कहता है कि आधा ग्लास खाली है। इस प्रकार एक की सोच सकारात्मक और दूसरे की सोच नकारात्मक है। चिंतन-चिंतन का अंतर होता है। कोई निर्णय करना है तो मन को शांत रखते हुए सकारात्मक सोच रखते हुए निर्णय करना चाहिए। किसी निर्णय के साथ आवेश, क्रोध अथवा मलीनता नहीं रखनी चाहिए। प्रशस्त चिंतन के लिए आदमी को शांत चित्त रखने का प्रयास करना चाहिए। कोई भी निर्णय शांति में हो, ऐसा प्रयास होना चाहिए। शांति में किया गया चिंतन हितकर हो सकता है।
परिवार में कोई चिंतन हो तो सबके हितों का ध्यान रखने का प्रयास होना चाहिए। निःस्वार्थ भावना हो, परकल्याण का चिंतन हो तो आदमी का व्यवहार भी अच्छा हो सकता है और आत्मा भी अच्छी रह सकती है। समता में उपस्थित होने से मन की चंचलता, संकल्प अथवा विकल्प आदि समाप्त हो जाता है। आदमी को समता की प्रवृत्ति में रहने का प्रयास करना चाहिए।
आचार्यश्री के स्वागत में धर्मशाला के ऑनर श्री करमशीभाई देसाई ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी तथा आचार्यश्री से मंगल आशीर्वाद प्राप्त किया।